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उ॒नत्ति॒ भूमिं॑ पृथि॒वीमु॒त द्यां य॒दा दु॒ग्धं वरु॑णो॒ वष्ट्यादित्। सम॒भ्रेण॑ वसत॒ पर्व॑तासस्तविषी॒यन्तः॑ श्रथयन्त वी॒राः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

unatti bhūmim pṛthivīm uta dyāṁ yadā dugdhaṁ varuṇo vaṣṭy ād it | sam abhreṇa vasata parvatāsas taviṣīyantaḥ śrathayanta vīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒नत्ति॑। भूमि॑म्। पृ॒थिवीम्। उ॒त। द्याम्। य॒दा। दु॒ग्धम्। वरु॑णः। वष्टि॑। आत्। इत्। सम्। अ॒भ्रेण॑। व॒स॒त॒। पर्व॑तासः। त॒वि॒षी॒ऽयन्तः॑। श्र॒थ॒य॒न्त॒। वी॒राः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:85» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजाजन कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यदा) जब (वरुणः) वायु के सदृश राजा (अभ्रेण) मेघ से (पृथिवीम्) विस्तीर्ण (भूमिम्) भूमि को और (उत) भी (द्याम्) प्रकाश को (सम्, उनत्ति) गीला करता है (आत्) उसके अनन्तर (इत्) ही वायु के सदृश राजा (दुग्धम्) दुग्ध की (वृष्टि) कामना करता है और हे (तविषीयन्तः) सेना की कामना करते हुए (वीराः) शूरवीरो ! आप लोग (पर्वतासः) मेघों के सदृश यहाँ (वसत) वास करिये और (श्रथयन्त) अर्थात् शत्रुओं का नाश करिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - वे ही राजा श्रेष्ठ हैं, जो प्रजा के हित की कामना करते हैं और जैसे मेघ सब के सुखों की वृष्टि करते हैं, वैसे ही राजा लोग प्रजाओं की कामनाओं को पूर्ण करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजानः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यदा वरुणेऽभ्रेण पृथिवीं भूमिमुत द्यां समुनत्त्यादिद्वरुणो दुग्धं वष्टि। हे तविषीयन्तो वीरा ! यूयं पर्वतास इवात्र वसत श्रथयन्त ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उनत्ति) आर्द्रीकरोति (भूमिम्) (पृथिवीम्) विस्तीर्णम् (उत) (द्याम्) प्रकाशम् (यदा) (दुग्धम्) (वरुणः) वायुरिव राजा (वष्टि) कामयते (आत्) (इत्) एव (सम्) (अभ्रेण) मेघेन। अभ्र इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (वसत) (पर्वतासः) मेघाः (तविषीयन्तः) सेनां कामयमानाः (श्रथयन्त) हिंसत (वीराः) ॥४॥
भावार्थभाषाः - त एव राजानः श्रेष्ठाः सन्ति ये प्रजाहितं कामयन्ते यथा मेघाः सर्वेषां सुखानि वर्षयन्ति तथैव नृपाः प्रजानां कामानलङ्कुर्य्युः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्रजेच्या हिताची कामना करतात तेच राजे श्रेष्ठ असतात व जसे मेघ सर्वांच्या सुखासाठी वृष्टी करतात तसेच राजे लोकांनी प्रजेच्या कामना पूर्ण कराव्यात. ॥ ४ ॥